सूरए बक़रह की आयत संख्या 206 और 207 इस प्रकार हैःوَإِذَا قِيلَ لَهُ اتَّقِ اللَّهَ أَخَذَتْهُ الْعِزَّةُ بِالْإِثْمِ فَحَسْبُهُ جَهَنَّمُ وَلَبِئْسَ الْمِهَادُ (206) وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَشْرِي نَفْسَهُ ابْتِغَاءَ مَرْضَاةِ اللَّهِ وَاللَّهُ رَءُوفٌ بِالْعِبَادِ (207)और जब उनसे कहा जाता है कि ईश्वर से डरो और बिगाड़ पैदा न करो तो उनकी ज़िद और बढ़ जाती है और अहंकार उन्हें पाप की ओर खींचता है तो ऐसों के लिए नरक काफ़ी है और वह कितना बुरा ठिकाना है। (2:206) और ईमानों वालों में से कोई ऐसा भी है जो ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी जान भी दे देता है और ईश्वर अपने बंदों के प्रति अत्यंत मेहरबान है। (2:207)धोखेबाज़ मिथ्याचारियों के अत्याचार के बारे में पिछली आयतों के उल्लेख के पश्चात ईश्वर आयत नंबर 206 में उनके अहंकार व उनके घमंड की ओर संकेत करते हुए कहता है कि यदि कोई उन्हें उपदेश दे या बुरी बातों से रोके तो न केवल यह कि वे उसकी बात नहीं सुनते बल्कि उनके पाप और ज़िद में वृद्धि हो जाती है और वे हर ग़लत कार्य करने को तैयार हो जाते हैं परंतु ऐसे घमंडी,अहंकारी और सांसारिक लोगों के मुक़ाबले में कुछ ऐसे पवित्र और बलिदानी लोग भी हैं, जो पूर्ण रूप से ईश्वर के प्रति समर्पित है और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी जान का भी बलिदान दे देते हैं।इस्लामी इतिहास की पुस्तकों और क़ुरआन की व्याखयाओं में आया है कि जब मक्के के अनेक ईश्वरवादियों ने रात में पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के घर पर आक्रमण करके उनकी हत्या करने का षड्यंत्र रचा तो ईणश्वरीय दूत द्वारा पैगम़्बर को इसकी सूचना हो गयी और उन्होंने मक्के से बाहर जाने का निर्य किया परंतु पैगम्बरे इस्लाम के ख़ाली बिस्तर को देखकर शत्रु उनकी हिजरत से सूचित न हो जाए इसीलिए हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम उनके बिस्तर पर सो गये और अपनी जान की परवाह न की। इसी बात को देखकर ईश्वर ने हज़रत अली की प्रशंसा में सूरए बक़रह की आयत 207वीं आयत उतारी।सूरए बक़रह की आयत नंबर 208 और 209 इस प्रकार हैःيَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا ادْخُلُوا فِي السِّلْمِ كَافَّةً وَلَا تَتَّبِعُوا خُطُوَاتِ الشَّيْطَانِ إِنَّهُ لَكُمْ عَدُوٌّ مُبِينٌ (208) فَإِنْ زَلَلْتُمْ مِنْ بَعْدِ مَا جَاءَتْكُمُ الْبَيِّنَاتُ فَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ (209)हे ईमान वालो! तुम सबके सब शांति और संधि में आ जाओ तथा ईश्वर के प्रति समर्पित रहो और शैतान के पद चिन्हों का अनुसरण न करो कि वह तुम्हारा खुला हुआ शत्रु है। (2:208)फिर यदि तुम इन सब स्पष्ट निशानियो और चमत्कारों के आने के बाद भी फिसलकर पथभ्रष्ट हो गये तो जान लो कि ईश्वर प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (2:209)यह आयत सभी ईमान वालों को शांति और संधि का निमंत्रण देती है ताकि मुस्लिम समाज एकजुटता व आपसी प्रेम का समाज बन जाए और लड़ाई झगड़ा तथा दंगा समाप्त हो जाए जो किसी भी समाज में फूट डालने के लिए शैतान का हथकंडा है।मूल रूप से जात, संप्रदाय, लिंग, भाषा, संपत्ति और ऐसे ही विदित भौतिक अंतर मनुष्यों के बीच फूट पड़ने और विशिष्टता प्राप्ति का कारण बनते हैं। केवल ईश्वर पर ईमान ही एकता व सहृदयता का कारण बनकर वास्तविक और अंतर्राष्ट्रीय शांति की पूर्ति कर सकता है। अतः शैतानी पद चिन्हों से दूर रहने कर आवश्यता पर बुद्धि और ईश्वरीय संदेश अर्थात वही के जो स्पष्ट तर्क प्रस्तुत किए गये हैं, उनके आधार पर हर वह कार्य जो इस्लामी समाज की पवित्रा, शांति व सुरक्षा को ख़तरे में डाले, ईमान से पथभ्रष्टता है और ऐसे व्यक्ति को जान लेना चाहिए कि वह तत्वदर्शी और शक्तिशाली ईश्वर के मुक़ाबले में है।सूरए बक़रह की आयत नंबर 210 इस प्रकार हैःهَلْ يَنْظُرُونَ إِلَّا أَنْ يَأْتِيَهُمُ اللَّهُ فِي ظُلَلٍ مِنَ الْغَمَامِ وَالْمَلَائِكَةُ وَقُضِيَ الْأَمْرُ وَإِلَى اللَّهِ تُرْجَعُ الْأُمُورُ (210)क्या यह पथभ्रष्ट इतने सारे स्पष्ट तर्कों के बावजूद इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ईश्वर और फ़रिश्ते बादलों की छाया में प्रकट होकर इनके सामने आएं और इनके समक्ष नये तर्क रखे ताकि यह ईमान लाएं जबकि लोगों के मार्गदर्शन के बारे में ईश्वरीय आदेश पूरा हो चुका है और सभी मामले ईश्वर ही की ओर लौटाए जाएंगे। (2:210)बहुत से लोग ईमान लाने के लिए इस प्रतीक्षा में होते हैं कि ईश्वर और उसके फ़रिश्ते को देखें और उनकी बातें सुनें जबकि इस बात की कोई संभावना नहीं है ईश्वर और फ़रीश्तों का कोई भौतिक शरीर नहीं है कि उन्हें देखा जा सके इसके अतिरिक्त ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी है तथा उसके मार्गदर्शन का मामला पूर्ण रूप से प्रशस्त कर दिया है और इस प्रकार की अनुचित मांगों की पूर्ती की कोई आवश्यकता नहीं है।इन आयतों से मिलने वाले पाठःबार बार पाप करने का एक कारण सत्य के मुक़ाबले में अहंकार, घमंड, संप्रदायिकता तथा ज़िद है जो इस बात का कारण है कि पशचाताप और प्राश्चित के स्थान पर मनुष्य अपने पापों में वृद्धि करता जाए।वास्तविक मोमिन कर्म करने वाला होता है और वह हर बात में ईश्वर का ध्यान रखता है और उसे प्रसन्न करना चाहता है किन्तु मिथ्याचारी ईश्वर के स्थान पर संसार से मामला करता है और लोगों को प्रसन्न करने का प्रयास करता है।वास्तविक शांति और सुरक्षा केवल ईश्वर पर वास्तविक ईमान की छाया में ही संभव है और ईमान के बिना मानवीय क़ानूनों पर भरोसा करके युद्ध व शांति को समाप्त नहीं किया जा सकता हैशैतान एकता का शत्रु है और एकता के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज़ शैतानी कंठ से ही निकलती है।आभास और स्पर्श के योग्य ईश्वर को देखने की आशा एक अनुचित आशा है और एक अस्वीकारीय बहाना हैईश्वर पर ईमान उस समय मूल्यवान है जब वह बुद्धि और तर्क के आधार पर हो।
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